Tuesday, June 23, 2015

पगली


                                                                  


ख़ुशी से 
बावरी हो गई थी
वो 
भाग रही थी
उड़ते ख़्वाबों के पीछे 
बुने थे जो उसने ख्यालों में 
टिक नहीं रहे थे 
पाँव जमीं पर 
मिलन जो होने जा रहा था 
उसके ख्वाबों का 
यथार्थ के साथ 
इसीलिये बुलाता था
उसको वो 
" पगली "
सचमुच पागल हो गई थी
जब उसने देखा था 
ख्वाबों का 
विश्वास का 
अहसासों का
वादों का
टूटकर बिखर जाना 
किसी ख़ास अपने द्वारा
जो उसकी जिंदगी बन बैठा था 
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वादे तो किए ही जाते हैं तोड़ने के लिये

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