हमराही

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Monday, December 31, 2012

.....''क्योंकि लड़की हूँ मैं''......

दोस्तो अभी तक सकारात्मक रचनाएँ लिखती आई हूँ,दामिनी की निर्मम हत्या के बाद एक नकारात्मक रचना लिखी है! अजन्मी बेटी के और माँ के अंतर्द्वंद को दर्शाती रचना...




माँ मुझे इस दुनिया में ना लाना

बेदर्द हैं रिश्ते बेदर्द है जमाना



डर लगता है पिता और भाई से

सुना है वो भी कम नही कसाई से



अभी तो छुपी हूँ आँचल की छाँव में

कल हो जायूंगी जूती किसी पाँव में



घर में तो तुमने मुझे है बचाया

बाहर कहाँ पा सकूँ तेरी मैं छाया



कैसे थाम लूँ किसी दोस्त का हाथ

कब हो जाए वो बेदर्द दुनिया के साथ



डॉक्टर के छूने से लगे डर कैसा

है जो मेरे भाई पिता के जैसा



शायद नहीं सुरक्षित अब तेरी ही बाहों में

'क्योंकि लड़की हूँ मैं' दुनिया की निगाहों में



सुन मेरी विनती मुझे दुनिया में नही लाना

मुश्किल है यहाँ चैन की साँस ले पाना



अगर 'सरिता' तुमने बेटी को है बचाना

तो पड़ जाएगा उसे भी 'दामिनी' बनाना



आओ इस दुनिया को बेटी से खाली बनाएँ

'बेटी बचाओ' नही हम 'भ्रूण हत्या' अपनाएँ


Thursday, December 6, 2012

''.....मेरा अंतर्द्वंद.....''



दुनिया की भीड़ में,
इस जीवन की भागदौड़ में
तुम कहीं दूर आगे निकल गये हो
मेरा हाथ तुमसे छूट गया है
जैसे कोई अपना मुझसे रूठ गया है


शायद ग़लती मेरी थी
मैं ज़्यादा ही आपेक्षाएँ कर बैठी थी तुमसे
मुझे समझना चाहिए
तुम्हारा रास्ता तो पहले से ही अलग था
मैं जिसमें अपना अक्स देखती रही
वो तुम नही थे,ना ना कभी हो भी नही सकते
शायद तुम्हारी परीछाई के पीछे भाग रही थी
अब मैने अपने चंचल मन को समझा दिया है
उदासी में भी हँसना उसे सिखा दिया है


पहले एक दिन में
तुम्हारे इंतज़ार में बेचैन हो जाती थी
देखो अब मन स्याना हो चला है
और मैं भी,
देखो एक सप्ताह हो चला है
तुम्हारा कोई पैगाम आए
और मैं अभी तक साँस ले रही हूँ
बिल्कुल वैसे ही जैसे तुम व्यस्त हो,
सब काम जल्दी से निपटाने में
बिना अपनी पगली की चिंता किए,
है ना.......