हमराही

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Sunday, May 12, 2019

माँ


माएँ हमेशा अपनी मर्जी चलाती हैं
अपने बच्चों को दुखों से बचाती हैं
रातों रात जागती हैं ..
पानी कहीं चला नही जाये
सोचते सोचते जल्दी उठ जाती हैं
दुर्गा जैसे अष्ट भुजाओं से काम निपटाती हैं
एक हाथ से पानी भरती है ,
सब्जी बनाती हैं
आटा गूँथती हैं
बच्चों को जगाती हैं
तभी तो माँ ... माँ कहलाती है
कहीं कूलर का पानी गिर नहीं जाए
कहीं सब्जी जल नही जाये
कभी सब्जी को देखने भागती हैं
कभी पानी ,कभी कपडे धोने की चिंता
मन में बुदबुदाती हुई भागती रहती हैं
बहुत मुश्किल से थोड़ा अलसाती हैं
तभी तो ... माँ कहलाती हैं 
माँ ...
जरा उठकर नाश्ता बना दो
माँ .. सुनते ही चौकन्न हो जाती हैं
बेटा भूखा न चला जाये
अपना दर्द भूलकर झट से उठ जाती हैं
कभी मुश्किल आ जाये जो
बच्चों से छुप छुप रोती हैं ...
फिर भी सदा मुस्कुराती हैं
तभी तो माँ .. माँ कहलाती हैं 
बेटी घर आई है ..
उसकी चिंता में बुदबुदाती है
ससुराल में काम करती आई है
उसको खुद खाना बना बना खिलाती है
उसको सब लाड लडाती हैं
नाती पोतों पर वारी जाती हैं
तभी तो .
माँ .. माँ कहलाती है
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2 comments :

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-05-2019) को "लुटा हुआ ये शहर है" (चर्चा अंक- 3334) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. अति सुंदर लेख

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