पिता की छत्र-छाया वो ,
हमारे सिर पै होती है |
उंगली पकड़ हाथ में चलना ,
खेलना-खाना, सुनी कहानी |
बचपन के सपनों की गलियाँ ,
कितने जीवन मिल जाते हैं ||
वो अनुशासन की जंजीरें ,
सुहाने खट्टे-मीठे दिन |
ऊब कर तानाशाही से,
रूठ जाना औ हठ करना |
लाड प्यार श्रृद्धा के पल छिन,
कितने जीवन मिल जाते हैं ||
सिर पर वरद-हस्त होता है ,
नव- जीवन की राह सुझाने |
मग की कंटकीर्ण उलझन में,
अनुभव ज्ञान का संबल मिलता|
गौरव आदर भक्ति-भाव युत,
कितने जीवन मिल जाते हैं ||
स्मृतियाँ बीते पल-छिन की,
मानस में बिम्वित होती हैं |
कथा उदाहरण कथ्यों -तथ्यों ,
और जीवन के आदर्शों की |
चलचित्रों की मणिमाला में ,
कितने जीवन मिल जाते हैं ||
श्रृद्धा -भक्ति के ज्ञान-भाव जब ,
तन-मन में रच-बस जाते हैं |
जग के द्वंदों को सुलझाने,
कितने भाव स्फुरित रहते |
ज्ञान-कर्म और नीति-धर्म युत,
कितने जीवन मिल जाते हैं ।।
डा. श्याम गुप्त
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"बाबुल की दुआएं लेती जा -जा तुझको सुखी संसार मिले"
"जिस द्वार पे जाए डोली उसी द्वार से निकले अर्थी "
"मुझे चढ़ना है स्वर्ग की सीढियाँ
इसलिये चाहिए कुलदीपक "
आज का पिता
नहीं कहता ये सब बातें।
बेटा चिराग तो बेटी रौशनी
बेटा सांस तो बेटी ज़िन्दगी
बेटा मुस्कान तो बेटी है खुशी
बेटा फूल तो बेटी कोमल- कली
दोनों ही उसकी आँखों का तारा
दोनों के कंधों का लेता है सहारा
उसके बुढापे का दोनों हैं आसरा
पुनीता सिंह
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पिता
जून की गर्म दोपहर में
बरगद की छाँव पिता है
शीतलहरी की रातों मे
जलता सा अलाव पिता है
भवसागर की तूफ़ानों में
प्राण रक्षक नाव पिता है
जीवन संकट की बेला में
महादेव का पाँव पिता है
मतलबी निष्ठूर जहाँ में
बसा-बसाया गाँव पिता है
सुलोचना वर्मा
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हमराही
Friday, June 21, 2013
'पिता' पर स्वरचित रचनाएँ : भाग 7.[अंतिम]
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पिता
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